सुकमा (डेस्क) – माओवाद प्रभावित सुकमा जिले का एर्राबोर गांव हर साल रक्षाबंधन पर एक ऐसा नज़ारा देखता है, जो आंखों को नम कर देता है. यहां बहनें अपने उन भाइयों की मूर्तियों पर राखी बांधती हैं, जो सलवा जुडूम आंदोलन के दौरान अलग अलग जगहों पर माओवादियों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे. यह परंपरा पिछले कई वर्षों से चली आ रही है, और आज भी गांव के लोगों के दिल में इन शहीद जवानों की याद जिंदा है.

एर्राबोर, जो कभी नक्सली हिंसा का गढ़ माना जाता था, 2006 में सुकमा जिले में सलवा जुडूम के दौर में जवानों और माओवादियों के बीच हुए अलग अलग घटनाओं ने सुरक्षा बलों के जवानों ने शहादत प्राप्त की. उन घटनाओ में शहीद हुए जवानों में से कई जवान यहीं के बेटे थे, जिनकी वीरगाथा आज भी बुजुर्गों की जुबान पर है.

रक्षाबंधन के दिन गांव की महिलाएं और बहनें सफेद या रंगीन चुनरी ओढ़कर, थाली में राखी, चावल और मिठाई लेकर शहीद स्मारक की ओर जाती हैं. वहां मौजूद शहीद जवानों की मूर्तियों के सामने वे धूप-दीप जलाकर उन्हें याद करती हैं. फिर नम आंखों और भरे गले से उनके हाथों की जगह मूर्ति की कलाई पर राखी बांधती हैं. यह सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि अपने वीर भाइयों के प्रति अनंत प्रेम और गर्व का प्रतीक है.

गांव की एक महिला बताती हैं, “भैया अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन रक्षाबंधन पर उनका आशीर्वाद हमें महसूस होता है. हम जानते हैं कि उन्होंने अपनी जान हमारी सुरक्षा के लिए दी. आज अगर हम चैन की सांस ले पा रहे हैं, तो सिर्फ उनके बलिदान की वजह से.”

एर्राबोर का यह अनोखा रक्षाबंधन न केवल रिश्तों का, बल्कि बलिदान और वीरता का भी पर्व है. बच्चे और युवा भी इस परंपरा में शामिल होते हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियों को यह याद रहे कि माओवादी हिंसा ने इस धरती से कितने सपूत छीन लिए थे.

स्थानीय पुलिस और सीआरपीएफ के जवान भी इस मौके पर मौजूद रहते हैं और बहनों से वादा करते हैं कि वे गांव की सुरक्षा के लिए हर वक्त तत्पर रहेंगे. यह दृश्य सुरक्षा बलों और ग्रामीणों के बीच विश्वास का एक मजबूत सेतु भी बनाता है.

हालांकि समय के साथ एर्राबोर और आसपास के इलाकों में माओवादी घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन वह दर्द और वीरता की यादें आज भी ताज़ा हैं. यहां राखी सिर्फ धागा नहीं, बल्कि वह अटूट बंधन है जो बहनों को उनके शहीद भाइयों से जोड़ता है—चाहे वे इस दुनिया में हों या नहीं.

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