सुकमा (डेस्क) – छत्तीसगढ़ का सुकमा जिला दशकों से नक्सलवाद की छाया में जूझता रहा है. एक समय था जब यहां के जंगलों में गोलियों की गूंज आम बात थी, जहां विकास के पहिए ठिठक जाते थे और स्कूल, सड़क, स्वास्थ्य जैसे मूलभूत अधिकार भी दुर्लभ थे. लेकिन अब वही धरती बदलाव की बयार महसूस कर रही है — यह बदलाव बंदूकों से औजारों की ओर, भय से आशा की ओर, और हिंसा से निर्माण की ओर है.
राज्य सरकार की नक्सल पुनर्वास नीति के अंतर्गत सुकमा जिला प्रशासन ने हाल ही में एक प्रभावशाली कदम उठाया है. जिले के 30 आत्मसमर्पित नक्सलियों को — जिनमें चार महिलाएं भी शामिल हैं — राज मिस्त्री (मेसन) का तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान किया गया. यह प्रशिक्षण न केवल इन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है, बल्कि यह समाज के लिए भी एक गहरी प्रेरणा है कि बदलाव संभव है — अगर अवसर और मार्गदर्शन सही हो.
दशकों की हिंसा से संघर्ष करता सुकमा
सुकमा जिला, बस्तर संभाग का एक दूरस्थ हिस्सा, देश के सबसे अधिक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में गिना जाता है. यहां के जंगल, नक्सल गतिविधियों का गढ़ रहे हैं. सालों तक यहां हिंसा, पुलिस-माओवादी मुठभेड़ें, सुरक्षाबलों की शहादत और ग्रामीणों के विस्थापन जैसे मुद्दे आम रहे. सरकार की तमाम योजनाएं जब तक ज़मीन पर नहीं उतर पाईं, तब तक न तो विश्वास बन पाया, न ही परिवर्तन.
हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में सरकार और सुरक्षा बलों की रणनीति ने धीरे-धीरे असर दिखाना शुरू किया. आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों की संख्या बढ़ी और साथ ही पुनर्वास की दिशा में ठोस प्रयास शुरू हुआ.
नई सुबह, नई राह : पुनर्वास नीति की रूपरेखा
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा लागू पुनर्वास नीति का मुख्य उद्देश्य यह है कि जो नक्सली आत्मसमर्पण करते हैं, उन्हें समाज की मुख्यधारा में जोड़ने के लिए जरूरी सुविधाएं, सम्मान और रोजगार मिले. इस नीति के तहत आत्मसमर्पित नक्सलियों को आर्थिक अनुदान, सुरक्षा, आवास, चिकित्सा, और कौशल विकास प्रशिक्षण प्रदान किए जाते हैं.
सुकमा में चलाया गया यह राज मिस्त्री का प्रशिक्षण कार्यक्रम इसी नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें आत्मसमर्पण के बाद इन युवाओं को राज मिस्त्री का प्रशिक्षण देकर स्वरोजगार के लिए तैयार किया गया.
औजारों की भाषा सीखते पूर्व नक्सली
यह प्रशिक्षण जिला पुनर्वास केंद्र में लाइवलीहुड कॉलेज और आरसेटी (RSETI) के संयुक्त तत्वावधान में संचालित किया गया. प्रशिक्षण के दौरान युवाओं को निम्नलिखित तकनीकी विषयों में हाथों-हाथ अनुभव दिया गया :
ईंट-गारा का मिश्रण,दीवार निर्माण,प्लास्टरिंग एवं फिनिशिंग,दरवाज़ों और खिड़कियों की फिटिंग,छोटे पुल व स्लैब की नींव समझ,लेवलिंग व मापदंड (measurement)इन सभी विषयों को स्थानीय भाषा में समझाकर, व्यावहारिक अनुभव के साथ सिखाया गया ताकि प्रतिभागी न केवल कौशल प्राप्त करें, बल्कि आत्मविश्वास के साथ कार्यक्षेत्र में उतर सकें.
प्रशिक्षण के बाद मिला प्रमाण पत्र और उम्मीद
प्रशिक्षण सफलतापूर्वक पूर्ण करने के बाद, एक सादे किन्तु गर्व से भरे समारोह में सुकमा के पुलिस अधीक्षक किरण चव्हाण ने सभी 30 प्रतिभागियों को प्रमाणपत्र वितरित किए. उनके अनुसार, “यह सिर्फ एक प्रमाण पत्र नहीं है — यह उनकी नई पहचान का पहला दस्तावेज़ है.”
इस मौके पर कलेक्टर देवेश कुमार ध्रुव भी उपस्थित रहे. उन्होंने कहा, “हमारा उद्देश्य है कि कोई भी युवा दोबारा जंगल की राह न चुने, बल्कि वह समाज के विकास में सहभागी बने. यह प्रशिक्षण उसी दिशा में एक ठोस कदम है.”
महिलाओं की भागीदारी : बदलाव की नई लहर
इस कार्यक्रम में भाग लेने वाली चार आत्मसमर्पित महिलाएं न केवल साहस की प्रतीक हैं, बल्कि यह भी प्रमाण हैं कि समाज में हर कोई बदलाव ला सकता है. एक महिला ने भावुक होकर कहा, “हमने बंदूकें छोड़ दी हैं। अब हम हाथों में ईंट और करणी लेकर घर बनाएंगे.”
जंगल से समाज तक का सफर
यह परिवर्तन सिर्फ तकनीकी नहीं, भावनात्मक भी है. जिन युवाओं ने अपना बचपन जंगलों में बिताया, जिनकी पहचान एक समय लाल झंडों और बंदूकों से होती थी — उनके लिए समाज की मुख्यधारा में लौटना आसान नहीं होता. उन्हें तिरस्कार, संशय और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है.
इसलिए यह कार्यक्रम उन्हें केवल कौशल नहीं देता, बल्कि एक नई पहचान, आत्मसम्मान और उद्देश्य भी देता है. इनमें से कई युवाओं ने प्रशिक्षण के दौरान अपने संघर्षों को साझा करते हुए कहा कि यह बदलाव उन्हें दोबारा इंसान होने का एहसास दिला रहा है.
प्रशासनिक रणनीति : पुनर्वास से स्थायी शांति की ओर
एसपी किरण चव्हाण के अनुसार, “हम आत्मसमर्पण को केवल संख्या के रूप में नहीं देखते. यह एक प्रक्रिया है, जिसमें उनका विश्वास जीतना और उन्हें पुनः समाज में शामिल करना हमारी ज़िम्मेदारी है.”
पुनर्वास बनाम प्रतिशोध
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि केवल सुरक्षा अभियान चलाकर नक्सल समस्या का समाधान नहीं हो सकता. असली जीत तब होती है जब एक बंदूकधारी खुद से बंदूक छोड़ दे — और यही इस नीति की सबसे बड़ी सफलता है.
प्रशिक्षण कार्यक्रम न केवल हिंसा को कम करने का एक माध्यम है, बल्कि यह एक वैकल्पिक सोच विकसित करने का प्रयास भी है — कि विकास का मार्ग हथियारों से नहीं, कौशल से बनता है.
अर्थव्यवस्था और स्वरोजगार : आत्मनिर्भरता की नई मिसाल
प्रशिक्षण पूरा करने वाले कई युवक अब खुद का निर्माण कार्य शुरू करने की योजना बना रहे हैं. वे छोटे मकान, शेड, बाउंड्री वॉल आदि के निर्माण में पारंगत हो चुके हैं. यह आत्मनिर्भरता की ओर उनका पहला कदम है.
उम्मीद की नई ईट : बदलाव की दीवार
सुकमा की यह पहल यह साबित करती है कि यदि नीति, नीयत और प्रयास एकजुट हों, तो हिंसा की ज़मीन पर भी शांति की फसल उगाई जा सकती है. आत्मसमर्पित नक्सलियों को राज मिस्त्री का प्रशिक्षण देकर जो बीज बोया गया है, वह केवल उनकी आजीविका का साधन नहीं — बल्कि समाज के पुनर्निर्माण की नींव भी है.
यह कार्यक्रम यह संदेश देता है कि कोई भी व्यक्ति स्थायी रूप से अपराधी नहीं होता,अवसर और मार्गदर्शन मिलने पर कोई भी बदल सकता है,और शांति की ओर बढ़ने के लिए सबसे प्रभावी हथियार है —समावेश.
सुकमा अब केवल एक संघर्ष क्षेत्र नहीं, बल्कि पुनर्वास और विकास की मिसाल बनकर उभर रहा है. यह नई सुबह, सच में एक नई राह लेकर आई है — जो हमें हिंसा से निर्माण की ओर ले जाती है.